आदि देव शंकरा
हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान शंकर महेश्वर है वह सौम्य और भोले है उनके जीवन चरित्र से हमें काफी कुछ शिक्षा मिलती है। आज के इस दौर में जब चीजें संतुलित नहीं है इंसान छोटी छोटी बातों पर कोध्रित हो जाता हैं तब भगवान शंकर से हम सौम्यता एवं संतुलन सीख सकते है।
भगवान शंकर अपने साथ दो बिलकुल विपरीत गुणों वाली वस्तुओं को लेकर चलते हैं वह वैरागी है पर माँ पर्वती के साथ आदर्श गृहस्थ भी है। हिन्दू धर्म में उन्हें विनाशक के रुप में देखा जाता हैं पर वह कई कथाओं के सृजनकृता और कई नगरों के निर्माता है वह जल्दी प्रसन्न होने वाले और सौम्य है परंतु अपने रुद्र अवतार में बलशाली और भयावह भी है। वह देवताओं पर भी कृपा करतें है और उन्हें असुर भी प्रिय है। उनके माथे पर चंद्रमा विराजित जो शीतलता का प्रतीक है वही उनके कंठ में विष का वास है जो की उग्रता का प्रतीक हैं। वह अपनी जटाओं में गंगा धारण करें हुए है और उनके तीसरे नैत्र में अग्नि का वास है। वह नटराज के रूप में कुशल नृत्यक है तो तांडव कर सृष्टि का संधार भी करते हैं। इतनी सारी विषमताओं के साथ भी भगवान शिव संतुलित, संयमी और सौम्य है जबकि हम थोड़ी परेशानी में भी अपना संतुलन और संयम खो देते हैं यहाँ पर हमें शिव से सीख लेनी चाहिए ।
जब भी कोई भी कठिनतम कार्य करना होता हैं तब भगवान शंकर को उस कार्य के लिए कहा जाता हैं जैसे की समुद्र मंथन के समय हलाहल विष का पान करना या गंगा के तीव्रतम प्रवाह को अपनी जटाओं में रूकना या फिर अधौरी भूतोप्रेतों और असुरों को संभालना और मोक्ष प्रदान करना या फिर आदि शंकराचार्य के रुप में भटके हुए लोगों को भक्ति मार्ग का ज्ञान देना । शिवजी गहन साधक है और असंभव को संभव बनाते हैं और यहां प्रबंधक को यह समझना चाहिए कि कोई भी असंभव और कठिन कार्य चिंता से नहीं अपितु गहन चिंतन और सौम्य स्वभाव रखकर ही संभव हो सकता है ।
शिव को विनाश के लिए जाना जाता हैं और जब भी विनाश की बात होती हैं तो उसमें सबसे पहले नकारात्मकता से जोडा़ जाता हैं परंतु शिव काम या फिर इच्छा, यम यानि मृत्यु और त्रपुर यानि तीनों लोक या यों कहे तो अपने भौतिक, अंतरिक और सांसारिक लोकों का विनाश करते हैं यह विनाश उन्हें पूज्यनीय बनाता है ।
वह प्रकृति में संतुलन का भी काम करते है विष्णुजी ने देवताओं को अमृत प्रदान किया तब शिव ने असुरों को संजीवनी विधा का ज्ञान दिया जिससे मृत मनुष्य को जीवित कर सकते हैं इस तरह वह दोनों पक्षों में संतुलन करते हैं। विष्णुजी अगर पालनकर्ता है तो शंकर प्रलय के कारक है और पुनः प्रकृति की स्थापना में योगदान देते हैं। हर वस्तु अंत में भस्म में परिवर्तित होती हैं और शिव अपनें शरीर पर भस्म रमाते हैं भस्म को और विघटित नहीं कर सकते अतः शिव निश्वर और शाश्वत दोनों के परिचायक हैं।
शिव से परम त्याग की भावना भी सीखने योग्य हैं। समुद्र मंथन में विषपान कर अमृत का त्याग करते हैं। शिव अपने भक्तो को सारे भौतिक सुख प्रदान करतें और खुद जंगलों में भ्रमण कर बाघम्बर धारण करते हैं। वह अपनी अधखुली आँखों से संसार को देखते हैं पर संसार की माया का त्याग करतें हैं। एक प्रसंग में वह अपने लिए विश्वकर्मा के द्वारा निर्मित भव्य भवन को ब्राह्मण को दान दें देते हैं ।
शिव से प्रबंधकों को अपने उच्च और अधीनस्थों से व्यवहार भी सीखना चाहिए अपने इष्ट राम के प्रति पूरी आस्था और समर्पण रखते है और अपनें अधीनस्थ नंदी आदि गणों को आदर और पूर्ण स्वतंत्रता देते हैं ।
आशा करता हूँ कि भगवान शिवशंकर का चरित्र हमें युहीं प्रेरणा देता रहे ।
जितेन्द्र पटैल।
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ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद मित्र
Deleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसहृदय धन्यवाद
Deleteबहुत अच्छा लिखा है सर ✨
ReplyDeleteसहृदय धन्यवाद
DeleteNice👏👏
ReplyDeleteThanks for your kind word of appreciation 🙏🙏🙏
DeleteVery nice
ReplyDeleteThanks for your kind words of appreciation
DeleteThankyou sir for sharing this information with us 😊 very informatory
ReplyDeleteThanks for your kind words of appreciation. Kindly go through my other blogs on various spiritual and motivational content.
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