श्रीमद भगवत गीता के प्रबंध सूत्र
प्रबंधन के क्षेत्र में गीता का हर अध्याय महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करता है। अगर हम गीता को एक धार्मिक-अध्यात्मिक ग्रंथ के रूप में ना देखे तो गीता एक बेहद प्रेणादायक पुस्तक साबित होगी । वर्तमान परिपेक्ष में व्यवसाय की चुनौतियों, अनुभव की कमी तथा दिनों दिन बढ़ती अपेक्षाओं के चक्रव्यूह में युवा का आत्मविश्वास डोलने लगता है और वह कुरुक्षेत्र के अर्जुन की तरह संशय, ऊहापोह और विषाद की स्थिति में पहुँच जाता है जहां से निकलकर आगे बढ़ने के के लिए गीता एक सरल मार्गदर्शक का कार्य करती है ।
गीता के आरंभ में श्लोक 2/7 में ही अर्जुन कहते है‘‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नं’’ अर्थात् मैं शिष्य की भांति आपकी शरण में हूँ । इसी तरह जिसे भी ज्ञान प्राप्ति की इक्छा हो उसे अपने गुरु एवं मार्गदर्शक की शरण में शिष्य के भांति जाना चाहिए अर्थात् उसे ज्ञान प्राप्ति की इच्छा और उसके उपयोग की समझ होनी चाहिए ।
गीता के आरिम्भिक श्लोक क्र. 2/3 में श्री कृष्ण कहते है ‘‘क्लैव्यं मा स्म गमः’’ अर्थात् कायरता और दुर्बलता का त्याग करो , वह आगे कहते है ‘‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं व्यक्लोतिष्ठ परंतप’’ हृदय में व्याप्त तुच्छ दुर्बलता को त्यागे बिना सफलता के सोपानों पर पग रखना संभव नहीं है। श्लोक क्र. (2/61) ‘‘निर्ममो निहंकारः स शांतिमधिगच्छति’’ आसक्ति और अहंकार के त्याग से ही शांति प्राप्ति होती हैI प्रबंधन के क्षेत्र में भी कायरता, दुर्बलता,तुच्यता,अहंकार और आसक्ति को त्यागे बिना सफलता पाना असंभव है, अपने सामथ्र्य के प्रति आत्मविश्वास एक उत्तम प्रबंधक की अनिवार्य योग्तया है।
किसी भी परियोजना के साथ सफलता और असफलता हमेशा जुडी रहती है इसका हमारे व्यवहार पर कोई असर नहीं होना चाहिए तात्पर्य यह है की हमे सफलता से ज्यादा उत्साहित नहीं होना चाहिए न ही की असफलता से बेहद निराश इसी सन्दर्भ में गीता का यह श्लोक शिक्षा देता है “ न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नो द्विजेत्प्राप्यचाप्रियम् स्थिर बुद्धिसंमूढ़ो ब्रह्मचिद्बह्मणि स्थितः।। अर्थात् "जो प्रिय (सफलता) प्राप्त कर प्रसन्न नहीं होता अथवा अप्रिय (असफलता) प्राप्त कर उद्विग्न (अशांत) नहीं होता वह स्थिरबुद्धि ईश्वर (जिसकी प्राप्ति अंतिम लक्ष्य है) में स्थिर कहा जाता है।"- यह एक अद्भुत प्रबंधन सूत्र हैं।
“व्यवसायात्मिका बुद्धि रेकेह कुरुनंदन बहुशाखा ह्यनंताश्च बुद्धयोत्यवसायिनम्।।2/41।।“ अर्थात् निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है और अनिश्चयात्मक बुद्धि अनेक होती हैं। जब भी एक प्रबंधक किसी योजना को आरंभ करता है तो उसके मन में अनेक विचार चल रहे होते हैI और उससे अपनी जरूरत और प्राथमिकतो के बीच सामंजयस बनाना पड़ता है, उसे गीता के इस श्लोक से प्रेणना लेकर अनेक अनिश्थित संभावनाओ का त्याग कर एक लक्ष्य उन्मुखी एवं निश्चित संभावना पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए ।
अपने द्वारा किये गए कार्यो की जिम्मेदारी लेना एवं अपने आप में हमेशा सुधार लाते रहना ही एक उत्तम प्रबंधक का परम कर्त्यव्य है इस विषय श्री कृष्णा कहते है ‘‘अनन्यचेताः सततं यो’’ अर्थात सबमें परमात्मा की प्रतीति क्षण मात्र को हो तो पर्याप्त नहीं है I इसका अभिप्राय यह है की अभियंता हर निर्माण और श्रमिकों में, चिकित्सक हर रोगी में, अध्यापक को हर विद्यार्थी में, व्यापारी को हर ग्राहक में हर बार परमात्मा दिखना चाहिए मतलब हमे अपने हितधारकों हमेशा संतुष्ट एवं प्रस्नन रखना चाहिए । श्री कृष्णा कहते है की जब हम अपनी तर्जनी उठते ही शेष 3 अंगुलियां मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा कहाँ होती है। वे ‘आत्म’ अर्थात स्वयं को इंगित कर खुद में 3 गुना अधिक दोष दर्शाती हैं। यहाँ प्रबन्धकों के लिये, अध्यापकों के लिये, अधिकारियों के लिये, प्रशासकों के लिये, उद्यमियों के लिये, गृह स्वामियों के लिये अर्थात् हर एक के लिये संकेत है। जितने दोष सहयोगियों, सहभागियों, सहकर्मियों, अधीनस्थों में हैं, उनके प्रति 3 गुना जिम्मेदारी हमारी है।
गीता में कर्म की प्रधानता बताई गई है और निष्काम कर्मयोग का विश्लेषण किया गया है ,प्रबंधन में लक्ष्य प्राप्ति को एकमात्र उद्देश्य माना गया है परंतु प्रबंधक अपने आप को कर्म में लिप्त कर कर्मफल की इच्छा करने लगता है , जिस पर श्री कृष्णा कहते है की“न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ १४ ॥“ अर्थात “मुझे कर्म लिप्त नहीं करते, कर्मों के फलमें मेरी स्पृहा नहीं है - इस प्रकार जो मुझे ठीक तरह से जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता । आशय यह है की कर्मो में लिप्त होकर भी उससे होने वाली लाभ और हानि से अपरिवर्तित रहना चाहिए। श्री कृष्णा आगे कहते है “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।2/46।। “(To action alone there has't a right. Its first must remain out of thy sight. Neither the fruit be the impulsed of thy action. Nor be thou attached to the life of ideal in action.) कर्ता का सिर्फ कर्म पर अधिकार है उससे जनित फल पर नहीं उसे अपने कर्मो का क्या फल मिलेगा भी या नहीं उसे उसका भी ज्ञान नहीं है परंतु उसे हमेशा कर्म करते रहना चाहिए तातपर्य यह है की कोई भी योजना फल की इक्छा से मुक्त होनी चाहिए और एक प्रबंधक को सिर्फ अपने कर्मो पर ही ध्यान देकर सबके कल्याण और हित के बारे में सोचना चाहिए ।
यह लेख श्री संजीव वर्मा सलिल जी, के लेख ''श्रीमद्भग्वद्गीता और प्रबंधन से प्रेरित है , लेखक डॉ पुनीत कुमार द्विवेदी जी के आभारी है जिनके द्वारा निष्काम कर्मयोग की व्याख्या से इस लेख को उचित मार्गदर्शन प्राप्त हुआ ।
जितेन्द्र पटैल
सहायक प्राध्यापक
प्रैस्टिज प्रबंध एवं शोध संस्थान
sueprbbb sir 👍
ReplyDeleteThanks a lot
DeleteJai ho... 👍
ReplyDeleteThanks a lot
Deleteऐसे लेखों की आज समाज मे बाह्य आवश्यकता है ।
ReplyDeleteआपके प्रेरणा दायक शब्दों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। अपने लेखन से समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की चेष्टा करता हूँ।
DeleteThanks a lot
ReplyDeleteNice Post. I like it.
ReplyDeleteThanks a lot
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