झूठा अभिमान

दीवाली की रात में सेठ जी की विशाल हवेली की ऊपरी मंजिल पर घी से भरा हुआ दिया जगमगा रहा था। वहीं उसी हवेली के नौकर के झोंपड़ी की चोखट पर भी एक कम तेल का दिया तमतमा रहा था। नौकर के घर पर रखें दिए ने हवेली वाले दिए से कहा कि क्यों भाई तुम कैसे हो हम दोनों अलग-अलग जगह पर रह कर भी अपनी बिरादरी काम कर रहे है और हम दोनों ही अपने मालिकों के घर को रोशन कर रहे हैं। दीवाली पर यहीं हमारी सार्थकता है। उस दिए की बात सुनकर हवेली वाला दिया चिढ़कर बोलता है की तेरी मेरी कोई बराबरी नहीं है कहां मैं नगर सेठ की हवेली की शोभा बढ़ा रहा हूं और तु कहां एक गरीब की कुटिया में जल रहा है। मेरे में इतना घी भरा हुआ है कि मैं रात भर जलता रहूंगा और तु और तेरा तेल थोड़ी देर में खत्म हो जाएगा। हवेली की दिए की बात सुनकर झोंपड़ी का दिया दुखी और निराश हो जाता है और शांति से अपनी झोपड़ी रोशन करने लगता है। अगले दिन सुबह सफाई में हवेली का दीपक में धक्का लग जाता है और वह नीचे गिर के चकनाचूर हो जाता है। वहीं झोपड़ी के दिए को ठीक तरह से उठाकर कोने में रख दिया जाता है। वह दिया अगले दिन भी झोपड़ी को रोशन करने...